रविवार, 16 दिसंबर 2012

Naari shakti aur samaj.

सदियों से लडती आरही,
जो अपने वर्चस्व की लड़ाई हे,
कई बार रोंदी कई बार लड़खड़ाई हे,
निरंतर प्रयास कर रही वोह नारी हे,

कहीं माँ बनकर पुचकारती यह,
कहीं बेटी बन हाथ थामती हे,
येही प्रेमिका बन दिल में हलचल मचाती हे,
तोह ये ही बहन बनकर दुलारती हे,
इतने रूप इतने नाम से जानी जाती हे,
सृष्टि को जनम देने वाली यह नारी हे,

प्रकृति का स्वरुप हे नारी,
इश्वर का प्रारूप हे नारी,
आज फिर इश्वर की बनाई इस दुनिया में,
लड़ने को मजबूर हे नारी,
कहीं धरम के नाम पे बंधती,
तोह कहीं समाज के नाम पे जलती हैं,
पर तोड़ हर एक बंधन को ,
उड़ने को तेयार हे नारी,

कभी दहेज़ के लालचियों ने जलाया हे,
तोह कभी अपनों ने ही हवास का शिकार बनाया हे,
अब बिगड़े हालात बदलने को
कुरीतियों को कुचलने को ,
लक्ष्मी सरस्वती का रूप त्याग,
चंडी बने को मजबूर हे नारी,

अब यह समाज को निश्चय करना हे,
खुद को बदलना हे या जलना हे,
कहीं सब्र का बांध टूट गया,
तोह अपने ही जन्मे समाज को,
मिटा देने को मजबूर हे नारी

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