राह में चलते एक पल दो पल,
जो टहरता
हूँ,
जरा रूक हरतरफ
से आती हुई ,
आवाजों को जरा सुनता हूँ,
तोह दिल सहमता
हे,
समाज के असली
परिदृश्य का पता चलता हे ,
वैसे इन अनगिनत
आवाजों में कुछ एक ही में समझ पता हूँ,
क्या कहती हे यह
आवाजे याद रखने को लिखे जाता हूँ,
हाथ पसारे
म्ट्मेलें कपड़ों
में,
कहीं करहाता
बचपन बिलखता
हे,
हर जाते
राही को बड़ी आस से तकता हे,
कभी सुनता
हूँ आवाज़ बुढ़ापे की,
एक आवाज़
अपनों से ठुकराई जाने की,
कभी एक चीत्कार कानो
से टकराती
हे,
व्यथित ह्रदय
को और बेचेन बनाती हे,
यह आवाज़
हे उस नारी की,
जो भेडियो
के बिच फँसी चिलाती हे,
इस बहरे समाज
को कुछ सुनाना चाहती हे,
ना जाने
कब यह समाज उठ पायेगा
,
ना जाने
कब समाज के
ठेकेदारों को समझ यह आयेगा,
जल्द ही ना किया कुछ तोह मानवता का पतन हो जाएगा,
जो बदलना
हे कुछ तोह साथ चलना
होगा,
हर आती आवाज़ को बुलंद
करना होगा,
जब मिल यह सारी आवाजें
जाएँगे तोह समाज में एक नयी क्रांति आयेगी,
पर ना जाने कब वोह समय आयेगा ,
तब तक में यूँही सर जुखाए हर आवाज़
को सुनता
जाऊंगा.