रविवार, 22 दिसंबर 2013

Shyam Ki duniya

हर श्याम खुद को खुद से दुर् ले जाता हूँ,
हर श्याम एक अलग दुनिया बसाता हूँ,

अपने ही ढंग की इस दुनिया को ,
अपने रंगों से सजाता हूँ,
कहीं रंग इंसानियत का,
तोह कहीं रंग मोहब्बत का सजाता हूँ,

कहीं उची इमारतों के बिच हँसता बचपन बनाता हूँ,
हर मोड़ से जाती राहों को सदभाव से सजाता हूँ,
जहाँ एक धर्म इंसानियत हो ऐसा एक समाज बनाता हूँ,

हर पेट में रोटी ,
हर चहरे पे हंसी ऐसी एक दुनिया ख्वाबों में बसाता हूँ,
जहाँ लहलाते पेड़ हरे जंगल,
और आज़ाद घूमते पशु पक्षी हो,
जहाँ ना इन्सान हेवान,
और न जानवर परेशान,
हर किसी की खुशियों की दुनिया बसाता हूँ,

पर हर रात के ढलते ढलते,
अपनी बसाई इस दुनिया को फिर ,
छोड़ने को मजबूर हो जाता हूँ,
और दिन के चदते हुए पल के साथ फिर श्याम के इन्तेजार में खो जाता हूँ,