अपने घर की आराम कुर्सी पर,
अख़बार के पन्ने को पलटता हूँ,
हर खबर के साथ बदलते देश की झलक देखता हूँ,
इससे विकास समझूँ या दमन येही सोचता हं,
कहीं भागती दौड़ती सड़कों की बातें हें,
तोह कही नित नयी उचाई छूती इमारतो की बातें,
इन्ही के बिच में कहीं हाथ फेलाए ,
टूटते बिखरते बचपन की बात हे,
उस्सी खबर के बीच एक रंग बिरंगा पोस्टर छापा हे,
शिक्षा पे सबका अधिकार हे सरकार ने बड़े गर्व से लिखा हे,
ख़बरों के मायाजाल में और पन्ने पलटता हूँ,
तोह गाँधी सुभास के देश की अलग झलकी देखता हूँ,
दंगों की ख़बरों छपी हैं,
राम रहीम के फेर में जनता लूट रही हे,
हम केवल शांति चाहते हैं ,
बड़े अक्षरों में नेता जी की यह टिप्पणी भी छपी हे,
कहीं देखता हूँ ,
दुर्गा लक्ष्मी के देश में ,
लुटती हुए अस्मतें चिलाती हैं,
कैसा यह समाज कौनसी मर्यादा हर एक चीज़ पे प्रश्न चिन्ह लगाती हे,
ऐसी अनगिनत खबरें हैं जिनको पढ़ दिल दहलता हे,
विकास के प्रारूपों पर एक प्रश्न चिन्ह जड़ता हे,
और यह अपने घरों की आराम कुर्सी पे बेठा,
अख़बार के पन्ने पलटता कोई और नहीं,
यह हर वोह व्यक्ति हें,
जोह हर इतवार ख़बरों को पढता हे ,
और फिर सरकार चोर हे के कसीदे पढता हे,
और फिर चैनल बदलके ठहाके मारकर हँसता हे,
अगर समाज बदलना हें तोह ,
आराम कुर्सी को छोड़ना होगा,
देश में फेली कुरीतियों से लड़ना होगा,
तभी हमारी आने वाली नस्लों का भारत महान होगा,
वरना यह देश फिर गुलामी की ज़न्ज्जीरों में जकड जायेगा,
और फिर कोई भगत भी इन ज़न्ज्जीरों को काट ना पायेगा.